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Saturday, 31 May 2014

मैं उदास हूँ..

पानी में पानी का रंग
तलाशना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।

ख़ुशी में ग़म
तलाशना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।

ऊँची पहाड़ियों पर
घाटियों को निहारना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।

इन्द्रधनुष के रंगों पर
काली लकीर खींचना
जता देना है कि
मौन उदास हूँ।

कहते हुए शब्दों पर
लगा कर पूर्णविराम।
चुप हो जाना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।







Wednesday, 28 May 2014

यह जीवन हर दिन आस भरा

यह जीवन
हर दिन आस भरा
उम्मीद भरा
भोर से साँझ तक।

हर रोज़ एक आस
उदित होती है
सूर्य के उदय के
साथ - साथ।

छाया सी डोलती
कभी आगे चलती है
कभी लगता है
दम तोड़ देगी
क़दमों तले
भरी दोपहर में।

नज़र आती है
हथेलियाँ खाली सी
लेकिन
दिन ढले
चुपके से दबे पाँव
पीछे से आ
कन्धों पर हाथ रख देती है।


 रात्रि के  घोर अँधेरे में  ,
निद्रा में भी
आस
पलती है स्वप्न सी।

आस -उम्मीद से
भरा जीवन ही
देता है जीने की प्रेरणा।




Tuesday, 13 May 2014

हैरान हूँ फ़िर भी मैं !

कल रात बहुत बारिश हुई
गीला   सा  मौसम
चहुँ ओर गीला -गीला सा आलम।

भिगोया तन
बरसती बारिश ने
भिगो ना सकी लेकिन
मन को और
मन में फैले रेगिस्तान को।

फैली हथेलियाँ
बारिश को समेटने को आतुर थी
लेनी थी महक सोंधी -सोंधी सी।

मन को ना छू सकी
गिर गई छू कर हथेलियाँ को ही ,
वह महक ना जाने क्या हुई !

बाहर बारिश थी ,
 अंतर्मन में  थे
तपते रेगिस्तान की
आँधियों के उठते बवंडर
तो वे  बूंदे मन को छूती ही  क्यूँ !

हैरान हूँ फ़िर भी मैं !
बारिश ने मन को ना भिगोया
फिर मेरे नयनों में
आंसुओ का  साग़र कहाँ से उमड़ा।





Tuesday, 6 May 2014

एक छवि है उसकी भी ...

कोई है
 जो बेनाम है
बनता अनजान है।

क्या जाने
वो रूठा या माना हुआ ,
गुमशुदा है
या आस-पास ही रहता है !

 सोचता है
अदृश्य है वह
मुझसे !
क्यूंकि निराकार है वह।

हां शायद
वह निराकार ही है !
लेकिन
अनजान है वह।

एक छवि है
उसकी भी
एक जानी  पहचानी सी
जो मेरे अंतर्मन में  साकार है।




ਓਸ ਦਿਸ਼ਾ ਵੱਲ ਵੇਖੀਏ ਵੀ ਕਿਉਂ..

ਮੇਰਾ ਮਨ ਸ਼ਾੰਤ
ਜਿਵੇਂ
ਸ਼ਾੰਤ ਸਮੁੰਦਰ ਦੀਅਾਂ ਲਹਿਰਾਂ
ਨਾ ਕੋਈ ਆਸ
ਨਾ ਹੀ ਕੋਈ ਉੱਮੀਦ ...
ਓਸ ਦਿਸ਼ਾ ਵੱਲ
ਵੇਖੀਏ ਵੀ ਕਿਉਂ
ਜਿਥੇ  ਜਾਣਾ ਹੀ ਨਹੀ ...
ਨਾ ਤੇਰੇ ਨਾਲ ਕੋਈ ਵਾਅਦਾ ਸੀ
ਮੇਰਾ
ਨਾ ਤੂੰ ਕੋਈ ਸਹੁੰ ਖਾਧੀ ਸੀ
ਮੇਰੇ ਨਾਲ ...
ਫਿਰ ਕਾਹਦਾ ਇੰਤਜ਼ਾਰ
ਕਿਹੜੀ ਉਮੀਦ ਕਿ
ਹਾਲੇ ਵੀ ਤੂੰ ਆਵੇਂਗਾ ,
ਮੈੰਨੂ ਇਕ ਵਾਰ
ਹਾਂ
ਇਕ ਵਾਰ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ,
ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਨਾਮ ਲੈ ਪੁਕਾਰੇਂਗਾ ...

ਇਹੋ ਹੀ ਇੱਕ
ਆਸ
ਮੇਰੇ ਮਨ ਦੇ ਸ਼ਾੰਤ ਸਮੰਦਰ ਚ
ਲਹਿਰਾਂ ਜਗਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ ...

…………………………………………। ( हिंदी अनुवाद )




Friday, 2 May 2014

पत्थर के शरीर में क्या आत्मा भी पत्थर की ही ....

कभी बुत देखा है क्या ...
चुप -खामोश
रुका -ठहरा सा
चुप सा दिखता है।
न जाने क्या सोचता रहता है

पत्थर का शरीर है
तो क्या
 मन भी पत्थर का ही होगा !

पत्थर के शरीर में
क्या आत्मा भी
पत्थर की ही निवास करती है !

धूप -बारिश
ठण्ड-कोहरे  का कोई तो
असर होता होगा।

सुबह के सुहाने मौसम का
चिड़ियों के कलरव से
 उसका मन भी  पुलकित होता होगा।

बहार के सुहाने मौसम में
सावन की फुहारों से
उसका मन भी तो भीग जाता होगा।

देखिये कभी गौर से
बुतों की पथराई नज़रे और होठ
कुछ न कुछ कहते
सुनाई जरुर देंगे
आखिर वे भी तो कभी इंसान रहे होंगे।