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Tuesday, 13 May 2014

हैरान हूँ फ़िर भी मैं !

कल रात बहुत बारिश हुई
गीला   सा  मौसम
चहुँ ओर गीला -गीला सा आलम।

भिगोया तन
बरसती बारिश ने
भिगो ना सकी लेकिन
मन को और
मन में फैले रेगिस्तान को।

फैली हथेलियाँ
बारिश को समेटने को आतुर थी
लेनी थी महक सोंधी -सोंधी सी।

मन को ना छू सकी
गिर गई छू कर हथेलियाँ को ही ,
वह महक ना जाने क्या हुई !

बाहर बारिश थी ,
 अंतर्मन में  थे
तपते रेगिस्तान की
आँधियों के उठते बवंडर
तो वे  बूंदे मन को छूती ही  क्यूँ !

हैरान हूँ फ़िर भी मैं !
बारिश ने मन को ना भिगोया
फिर मेरे नयनों में
आंसुओ का  साग़र कहाँ से उमड़ा।





11 comments:

  1. http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/05/blog-post_14.html

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  2. मन के तपते रेगिस्तान को शांत करने का उपाय स्नेह की शीतल छाया है...जो भौतिकतावाद की बलि चढ़ गई...

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  3. बहुत ही सुन्दर रचना....

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  4. अन्तिम चार पंक्तियाँ ...बहुत सुन्दर
    बेटी बन गई बहू

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  5. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15-05-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
    आभार

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  6. बेहद गंभीर और गहन अभिव्यक्ति

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  7. बहुत ही सुन्दर

    Blogging ke bare me aur janne ke liye yaha aye
    http://www.techguyz.org/search/label/blogger

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