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Friday, 16 November 2012

सरहद और नारी मन

सरहद पर जब भी
युद्ध का बिगुल बजता है
मेरे हाथ प्रार्थना के लिए
जुड़ जाते हैं
दुआ के लिए भी उठ जाते हैं
सीने पर क्रोस   भी बनाने
 लग जाती हूँ ......
मेरे मन में बस  होती है
एक ही बात
सलामत रहे मेरा अपना
जो सरहद पर गया है ,
लौट आये वह फिर से
यही दुआ होती है मेरे मन में ....
मैं कौन हूँ उसकी ...!
कोई भी हो सकती हूँ मैं
एक माँ
बहन ,पत्नी
या बेटी
उसकी जो सरहद पर गया है ......
इससे भी क्या फर्क पड़ता है
मैं कहाँ रहती हूँ
सरहद के इस पार हूँ या
उस पार ......
दर्द तो एक जैसा ही है मेरा
भावना भी एक जैसी ही है .......
हूँ तो एक औरत ही न ...!

4 comments:

  1. दर्द तो एक जैसा ही मेरा,

    भावना भी एक जैसी ही है ... बिल्‍कुल सच

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  2. उकेरे हैं आपने अपने अंतर्मन के सुन्दर भाव .......

    सुन्दर प्रस्तुति

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  3. इससे भी क्या फर्क पड़ता है
    मै कहाँ रहती हूँ
    सरहद के इस पार हूँ
    या उस पार
    दर्द तो एक जैसा ही है मेरा
    भावना भी एक जैसी ही है
    हूँ तो एक औरत ही न...

    क्या बात है वंदना जी
    बहुत सुंदर भावुक रचना ।

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