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Tuesday, 31 December 2013

शायद सदियां भी तेरे इंतज़ार में अब काटनी है ...

ना जाने कितने पल
कितने दिन
कितने बरस
कितने युग
शायद सदियां भी
तेरे इंतज़ार में अब काटनी है

धुंधलाने लगी है
नज़रे मेरी अब ,
लेकिन
ना जाने ये आस क्यूँ नहीं
टूटी मेरी अब तक

एक पल को लगता है
तू मेरे सामने ही है ,
भ्रम ये कितना सुहाना है
इसी भ्रम के एक पल में
ना जाने कितने
जन्म जी जाती हूँ एक साथ

यही भ्रम
मेरी आस को टूटने नहीं देती
 अब भी तेरा इंतज़ार है
और अब
जाने कितने
जन्म भी
तेरे इंतज़ार में  काटने है

Friday, 27 December 2013

ये नीला रंग दहशत देता है मुझको

ये नीला रंग
दहशत देता है मुझको
हटा लो
इसे मेरी नज़रों से

ये नीला रंग
मेरे रक्त को
बहती हुई रगों को
ज़मा सा  जाता है
बुझदिल बनता जाता है

खुला विस्तृत
ये नील गगन
और
इसका नीला रंग
चुभता है मुझे
चुंधिया जाता है मेरी नज़रें ...

आखिर कब तक रखूं
बंद आँखे
ढांप क्यूँ नहीं लेता
इसे कोई बादल का टुकड़ा
मगर
कुछ दिन के बादल
और फिर से
धमकाता - गरियाता
नीला - गगन ...

इस नीले रंग की दहशत में
फीके पड़ जाते हैं
धनक के सात रंग ,
फीके पड़ते रंगों में
एक ही रंग उभरता है
नीला रंग ...

इस  नीले  रंग से
नफरत की  हदों से भी आगे
नफरत है मुझे
हटा दो मेरी नज़रों से इसे ...





Monday, 23 December 2013

ये पर्वत मुझे ऐसे लगे ,जैसे ...


ये पर्वत,
सफ़ेद रुई जैसी बर्फ से घिरे
मुझे ऐसे लगे 

जैसे ...

बूढी नानी की गोद 
जिसमे बैठ कर ,
कहानी सुनते -सुनते सो जाएँ ...

जैसे...

माँ की गोद
जहाँ बैठ 
सारी थकान भूल जाएँ ........

जैसे...

 पिता का सा
मजबूत सहारा ,
जहाँ हर दुःख दूर हो जाये ...

जैसे ...

प्रियतम का साथ
जिसके आगोश में
 हर गम भुला दें ...

Sunday, 22 December 2013

स्कूटर पर जाती महिला



स्कूटर पर जाती महिला
का सड़क से गुज़रना  हो
या  गुज़रना हो
काँटों भरी संकड़ी गली से ,
दोनों ही बातें
एक जैसी ही तो है।

लालबत्ती पर रुके स्कूटर पर
बैठी महिला के
स्कूटर के ब्रांड को नहीं देखता
कोई भी ...

देखा जाता है तो
महिला का फिगर
ऊपर से नीचे तक
और बरसा  दिए जाते हैं फिर
अश्लील नज़रों के जहरीले कांटे ..

काँटों की  गली से गुजरना
इतना मुश्किल नहीं है
जितना मुश्किल है
स्कूटर से गुजरना ...

कांटे  केवल देह को ही छीलते है
मगर
हृदय तक बिंध जाते है
अश्लील नज़रों के जहरीले कांटे ...





Wednesday, 18 December 2013

आओ कान्हा भोग लगाओ


भर कर थाली
छप्पन भोग की ,
कब से रही पुकार तुम्हें
आओ  कान्हा भोग लगाओ

 सुनाई नहीं देता क्या
एक बार में ही तुमको !
सारा काम -काज मैं छोड़ कर बैठी
आओ कान्हा भोग लगाओ

मेरे बालक भी हैं भूखे बैठे ,
प्रेम पुकार को करते अनसुनी
तुम कहाँ छुपे हो बैठे
आओ कान्हा भोग लगाओ

अबकी बेर है आखिरी बारी
फिर न तुमको पुकारूंगी
नहीं आओगे फिर तुम जानो ,
लाठी मेरे पास पड़ी है
कब से रही पुकार तुम्हें
आओ  कान्हा भोग लगाओ





Tuesday, 17 December 2013

तू मुझसे ही दूर हुआ जाता है ..


मत  रह
इतना खामोश
कि मुझे
तेरे बुत होने का
गुमां हुआ जाता है...

नहीं होगी  अब
बुतपरस्ती मुझसे ,
इश्क में तेरे ,
अपना सर
पहले  ही झुका रखा है मैंने...

मत कर मुझसे
 इतनी मुहब्बत
कि मुझे
तेरा ,
मेरा  ख़ुदा होने का
गुमां हुआ जाता है...

 नहीं होगी अब
बंदगी मुझसे ,
मेरा ख़ुदा  बन कर
 तू
मुझसे ही दूर हुआ जाता है ..


( चित्र गूगल से साभार )









Sunday, 15 December 2013

तुम बिन सब सूना -सूना ...


तुम बिन कौन सजन अब मेरा 
 जैसे  फूल सूरजमुखी सा 
मुरझाया अब मन मेरा भी 
घर -आँगन और मन का कोना 
तुम बिन सब सूना -सूना 

तुम बिन कौन सजन अब मेरा 
मद्धम हुआ जैसे चाँद गगन में 
अंधियारे में खोया 
अब मन मेरा भी 
घर -आँगन और मन का कोना 
तुम बिन सब सूना -सूना 


गए परदेस जब से तुम साजन 
भर आते नयन पल -पल 
पल -छिन तुम्हारी डगर निहारूं 
घर -आँगन और मन का कोना 
तुम बिन सब सूना -सूना 

एक बार तो मुड़ कर देखा होता 
जैसे कुम्हलाई सी लता 
 व्याकुल अब मन मेरा भी
घर -आँगन और मन का कोना 
तुम बिन सब सूना -सूना 

तुम बिन कौन सजन अब मेरा 
अब तो घर आ जाओ सजन 

Tuesday, 10 December 2013

बात एक रात की ...

बात एक रात की। एक सच्ची घटना पर आधारित है ये कविता। 1971 में जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान का युद्ध हुआ था। उन्ही दिनों की एक रात की बात है। मेरी माँ हैम तीन बहनों के साथ अपने मायके में ही थी। वह ज़िद कर रही थी कि वह हम तीनो को एक साथ एक ही चारपाई पर लेकर सोएगी। तब मैं तीन साल की ही थी। बड़ी दीदी मीनाक्षी 6 साल और छोटी पूजा मात्र चार माह की। माँ के मुख से कई बार सुनी ये घटना कब काव्य का रूप ले लिया। मालूम ही नहीं चला।

बात एक युद्ध के 
बादलों से बरसते बमों की 
काली रात में 
प्यार और ममता की है ...

जहाँ एक माँ ने ,
एक दूसरी माँ को अपनी 
तीन बच्चियों के साथ
लगभग सिकुड़ कर
सोते देखा तो पूछ बैठी … 


कि  ऐसे क्यूँ कर रही हो ?
दूसरी माँ सहमते हुए से
बोली बमों की बारिश में
कही कोई बम इधर भी
आ गिरा तो हम सब
एक साथ ही जाएँगी ...


पहली माँ हंस पड़ी
अरी,फिर बचेगा
तो कोई भी नहीं ,
लाओ एक बच्ची को
मुझे देदो ,

पर दूसरी माँ
अपनी बच्चियों को
अपने में समेटते ,सहलाते
हुए बोली नहीं -नहीं ...


पहली माँ ने बड़े दुलारते हुए
कहा चल मैं भी 

आज तेरे साथ ही सोती हूँ ,
हैरान होती हुए
दूसरी बोली, क्यूँ तुम क्यूँ ?
पहली माँ बोली अरी !!
मैं भी तेरी माँ हूँ ,
क्या मै तेरे बिन जी पाउंगी
भला ...!
उस रात बारिश तो हुई  थी 

पर
बमों की नहीं ,

प्यार की - ममता की
जिसमे भीगती रही दो माएं 

और
उनकी चार बेटियां ,

सारी रात .........

( "स्त्री हो कर सवाल करती है " में प्रकाशित )

Sunday, 8 December 2013

जहाँ धरती -गगन मिलते नहीं

हम  साथ -साथ 
चलते हुए 
कुछ ऐसे बिछड़े ,

अलग - अलग राह पर 
कुछ ऐसे घूमे 
एक दायरे में ही बंधकर
रह गए

जहाँ से 
ना तुम निकल पाए ,
ना ही निकल पायी मैं कभी ..

जान कर भी
 अनजान बन जाना 
कतरा कर 
करीब से अजनबी बन कर 
निकल जाना 

बन्धनों से जकड़े  
 दूर से
एक- दूसरे की तरफ 
मायूसी से ताकते हुए ...

अक्सर  इस दायरे से 
जब भी 
धुंआ बन उड़ जाती हूँ ,

 तुम्हें
अपने सामने ही  पाती हूँ


तुम्हारा  हाथ

एक बार फिर से 
थाम कर निकल  पड़ती हूँ 
क्षितज के पार 
जहाँ धरती -गगन मिलते नहीं 
लेकिन 
मिलते से प्रतीत तो होते हैं।

(चित्र गूगल )