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Sunday, 8 December 2013

जहाँ धरती -गगन मिलते नहीं

हम  साथ -साथ 
चलते हुए 
कुछ ऐसे बिछड़े ,

अलग - अलग राह पर 
कुछ ऐसे घूमे 
एक दायरे में ही बंधकर
रह गए

जहाँ से 
ना तुम निकल पाए ,
ना ही निकल पायी मैं कभी ..

जान कर भी
 अनजान बन जाना 
कतरा कर 
करीब से अजनबी बन कर 
निकल जाना 

बन्धनों से जकड़े  
 दूर से
एक- दूसरे की तरफ 
मायूसी से ताकते हुए ...

अक्सर  इस दायरे से 
जब भी 
धुंआ बन उड़ जाती हूँ ,

 तुम्हें
अपने सामने ही  पाती हूँ


तुम्हारा  हाथ

एक बार फिर से 
थाम कर निकल  पड़ती हूँ 
क्षितज के पार 
जहाँ धरती -गगन मिलते नहीं 
लेकिन 
मिलते से प्रतीत तो होते हैं।

(चित्र गूगल )

14 comments:

  1. बहुत बढ़िया कृति व प्रस्तुति , आदरणीय उपासना जी धन्यवाद
    ॥ जै श्री हरि: ॥

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  2. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने..

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  3. सुंदर भावों की अभिव्यक्ति .....!!

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  4. कोमल भावना की सशक्त अभिव्यक्ति।

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  5. बहुत उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

    नयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (09-12-2013) को "हार और जीत के माइने" (चर्चा मंच : अंक-1456) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  7. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....
    :-)

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  8. जहां धरती गगन नही मिलते पर मिलते से प्रतीत होते हैं। यही तो है विडंबना।

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  9. एक ही दायरे में भी साथ तो होते हैं ... चाहे भ्रम में ही सही ...

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