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Monday, 8 April 2013

वैसे तुम कहाँ हो अब ...


तुमने कहा
जैसे मैं तुम्हे देखती हूँ
तुम वैसे ही हो ...

लेकिन
जैसे मैं देखती हूँ
वैसे तुम कहाँ हो अब ...

समय बदल जाता है
मौसम बदल जाते है
दिन भी तो
एक जैसे कहाँ रहते हैं ...

एक दिन में भी तो कई
प्रहर होते हैं
हर प्रहर का भी तो
मौसम होता है
तासीर होती है ...

फिर तुम वैसे ही कैसे
रह सकते हो
जैसा मैं देखना चाहती हूँ ...

मौसम की तरह तुम भी
 बदले हो
नज़र ना बदली हो चाहे
नजरिया बदल कर
नज़रें तो फेर  ही ली तुमने ....

समय का फेर ही कहोगे तुम
इसे
मैं कहूँगी तुम्हारे मन का फेर ,
लेकिन इसे ...

फिर तुम कैसे कह सकते हो
जैसे मैं देखती हूँ
तुम वैसे ही हो ...





24 comments:

  1. badlav to hota hai par aatma vahi rahti hai ...............bahut sundar rachna

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    1. हार्दिक आभार संध्या जी

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    1. हार्दिक आभार नीलिमा जी

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    1. हार्दिक आभार आदित्य जी

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    LATEST POSTसपना और तुम

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    1. हार्दिक आभार कालिपद जी

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  5. बहुत ही बेहतरीन सुन्दर प्रस्तुति.

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    1. हार्दिक आभार राजेन्द्र कुमार जी

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  6. उलहना देती हुई ये
    बहुत ही सुंदर रचना घढ़ी है आपने !

    नज़रें न बदली हो चाहे
    नज़रिया बदल कर
    नज़रें फेर ली तुमने ......

    कहो भले ही कि तुम्हारे मन के फेर है.....
    पर मानो यही कि
    समय का फेर है ....

    बहुत खूब
    " जी "

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    1. हार्दिक आभार जी ......

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  7. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 9/4/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।

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    1. हार्दिक आभार राजेश कुमारी जी

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  8. सफल, सार्थक और मर्मस्पर्शी कविता। सच में आपकी कलम और वाणी में अद्भुत ताकत है। भीतरी दर्द और शिकायत को सदे हुए शब्दों में व्यक्त किया है। सामने वाले के हृदय में परिवर्तन क्षमता कविता में है। बस परवर्तन हो।
    drvtshinde.blogspot.com

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    1. हार्दिक आभार विजय शिंदे जी

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    1. हार्दिक आभार अरुण कुमार जी

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  10. kyaa khoob aaklan kiya hai aur sach bhi kah diya hai

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    1. हार्दिक आभार वंदना जी

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  11. हार्दिक आभार कुलदीप जी

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  12. बहुत सुन्दर....
    बदलाव तो अवश्यम्भावी है....

    अनु

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  13. बदलाव प्रकृति का नियम है ...भला इससे कौन अछूता रह पाता है ...बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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