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Saturday, 16 March 2013

मंदिर की आरती



एक किसान जो रोज़
  संध्या को
 अपने बैलों के साथ
मंदिर के पास से गुजरता ...........

अक्सर पुजारी को
दीपक करते हुए देखता तो
 मन उसका भी करता
के हाथ जोड़ दूँ ,
पर तभी
अपनी फटेहाल हालत और
मंदिर के गुम्बंद पर
सोने का कलश
देख कर अपने मुहं और कंधे टेढ़े
से कर ,
चल देता ...............

 एक दिन उसके गुस्से की कोई
सीमा न रही
जब मंदिर की आरती
के समय ,
वहां से आते ढोल -नगाड़ों
के शोर से उसके
बैल बिदक कर भाग छूटे .........

नाराज़ हो पुजारी से पूछ बैठा ,ये कैसा
शोर मचाया है ,
मेरे तो बैल ही बिदक गए ............

पुजारी बोला
हे पुत्र , आरती उतार रहें है !
अब किसान खीझ उठा
ओह ...! अरे भाई,
पहले आरती को ऊपर चढाते ही
क्यूँ हो जो ढोल -नगाड़े बजा कर
उतारा जाये ,
आहिस्ता से भी तो पुकार सकते हो ........

पुजारी ने उसे भगवान की
 महिमा समझाई ,
दान -पुन्य की बात भी
 कुछ कान में डाली
 किसान तो  कुछ ना समझा पर उसने
 पुजारी  को खूब समझाया   ...........

देखो भाई ...!जब एक किसान
अपने खेत में बीज बोता है तो
ना जाने कितने प्राणियों के
पेट भरता है ,
हजारों चींटियाँ कितने ही पंछी
 और भी कई जीव जन्तुं
अपना हिस्सा अपने आप ही ले लेते ...

मेरी पसीने की कमाई
तुम्हारे भगवान पर
 क्यूँ लुटाऊं,
इसने मुझे क्या दिया ...!
इसकी आरती ने तो
मेरे बैल भी भगा दिए वो
अब कहाँ से ढूंढ़ कर लाऊं .........!


42 comments:

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    1. हार्दिक आभार भगत सिंह जी

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    1. हार्दिक आभार कविता जी

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  3. यहाँ पर कवि कबीर के एक दोहे के आधार पर लिख रही हूँ...क्या हमारा ईश्वर बहरा है जो शोर मचा मचा कर पूजा करना आवश्यक है|

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    1. हार्दिक आभार ऋता जी

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    1. हार्दिक आभार शांति जी

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  5. pooja archana kam aur dikhawa jyada,nce creation

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    1. हार्दिक आभार मधु जी

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  6. wow upasna bahut khoob likha 16 ane sach kyoki kisan hi to aan upja ker ham sab ka pet palta he ,tabhi to jai javan jai kisan nara sarthak hua

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    1. हार्दिक आभार गीता जी

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  7. वाह, उपासना जी. काश! पुजारी कुछ समझदार होते.

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    1. हार्दिक आभार सुरेश जी

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  8. पुजारियों की पोल खोलती सार्थक रचना.

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    1. हार्दिक आभार राजेन्द्र जी

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  9. बहुत ही सार्थक और सटीक रचना..

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    1. हार्दिक आभार महेश्वरी कनेरी जी

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  10. कर्म ही पूजा है...परन्तु ईश्वर की आराधना को भी नकारा तो नहीं जा सकता....

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    1. आपका कहना सही है लेकिन एक मेहनतकश किसान कर्म में ही अधिक विश्वास करता है .......:))
      हार्दिक आभार सारिका जी

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    2. उपासना जी, दुःख में सुमिरन सब करें...ईश्वर अपनी जगह और कर्म अपनी जगह...बुरे वक्त में बड़े-बड़े कर्म-विश्वाशी को उसके दर पे माथा रगड़ते देखा है..किसान तो हर फसल के लिए उससे दुआ मांगता है....उसी की रहमत पर किसान को उसकी मेहनत का फल मिलता है....

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    3. हाँ जी आपकी बात से सहमत हूँ मैं ...किसान तो हर हाल में ईश्वर की कृपा पर ही जीता है ...थोडा सा मौसम परिवर्तन होते ही उपर की और ताकने लगता है की प्रभु कृपा रखना ....यहाँ वह दान से परहेज़ करता है ..वह सीधे ही यानि डायरेक्ट प्रभु से मुलाकात करता है नाकि किसी पुजारी के मार्फत ........आभार आपका रचना पर एक बार फिर से अपनी अमूल्य टिपण्णी करने के लिए ......

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    4. आपने मेरी टिप्पणी पर आपने अमूल्य विचार लिख मेरी शंका का समाधान किया...आभारी हूँ वरना ब्लॉग पर तो लेखक प्राय: ऐसी टिप्पणियों को चुपचाप हटा देते हैं...धन्यवाद!

      होली की आप सभी को शुभकामनाएँ!
      सादर/सप्रेम,
      सारिका मुकेश
      http://sarikamukesh.blogspot.in/
      http://hindihaiku.blogspot.in/

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    5. आभार सारिका जी ...:))

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  11. वाह! बहुत सुन्दर और सार्थक...अपने कर्मों के प्रति पूर्ण समर्पण किसी भी पूजा से कम नहीं है..

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    1. हार्दिक आभार कैलाश शर्मा जी

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  12. सुंदर सन्देश ,,क्यों लुटाऊँ तुम्हारे भगवन पर ....साधुवाद
    धन्यवाद आपका

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    1. हार्दिक आभार परंतप मिश्र जी

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  13. कर्म ही पूजा है ,कर्म जो करता है उसे अलग से ईश्वर आराधना की आवश्यकता नहीं है .अपनी सरल वुद्धि से कृषक ही कर्म और पूजा का अर्थ सही समझा.भगवन सभी प्राणी में है और अलग अलग प्राणी कृषक के फसल का हिस्सा खेत से ग्रहण कर रहे है तो अलग से मंदिर में देने की क्या जरुरत है ? -बहुत सुन्दर रचना
    latest postऋण उतार!

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    1. हार्दिक आभार कालिपद जी

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    1. हार्दिक आभार धीरेन्द्र जी

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    1. हार्दिक आभार अज़ीज़ जौनपुरी जी

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  16. ये बात आस्था और विश्वास की है किसान का दृष्टिकोण अपना और पुजारी का दृष्टिकोण भक्ति का

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    1. हार्दिक आभार रमाकांत जी ....

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  17. दिखावे पर चोट करती पोस्ट।

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    1. हार्दिक आभार इमरान अंसारी जी...

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  18. असल पूजा कर्म है... संदेशप्रद रचना, बधाई.

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    1. हार्दिक आभार जेन्नी जी

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  19. उपासना जी आपके कविता के किसान को मेरा साष्टांग दंडवत कहिएगा। कारण प्रेमचंद के समय में 'गोदान' का किसान होरी पाप-पुण्य के फेरे में अटक कर अपनी जान गवां बैठा, आपका किसान पुजारी को, पूजा को नकार कर अपने अस्तित्व का एहसास करवा रहा है। कविता के भीतर का यह भाव समय बदल चुका है बता रहा है साथ ही किसान नकार सकते इसका आपने परिचय भी करवाया है।

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    1. हार्दिक आभार विजय जी ........आपका प्रणाम मैं मेरे पतिदेव को पहुंचा दूंगी क्यूँ की यह कविता उनके विचारों से ही ओत-प्रोत है ......आभार

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