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Sunday, 25 December 2016

प्रेम तुम कहीं नहीं हो

प्रेम तुम,
छद्म रूप हो
माया हो
मोह हो
मरीचिका हो,

ना नज़र
आने वाली
अप्राप्य वस्तु से हो

मुट्ठी में बंद
रेत  से  हो
फिसलते जाते हो
 पल-पल,

पतझड़ के
गिरते पत्ते की
 तरह हो

जाड़े की धूप
जैसे हो
बिना गर्माहट लिए,

प्रेम तुम ,
कुछ भी हो सकते हो
बस
ख़ुशी नहीं हो सकते,

निराशा हो
आँखों की धुंधली होती
चमक की तरह.

प्रेम तुम
कहीं नहीं हो,
अगर हो तो
बस मृत्यु पथ पर ही।



3 comments:

  1. हमेशा की तरह एक और बेहतरीन पोस्ट इस शानदार पोस्ट के लिए धन्यवाद। .... Thanks for sharing this!! :) :)

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  2. न होते हुए भी प्रेम है हर जगह ... शायद साँसें हैं ...
    नव वर्ष मंगलमय हो ...

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  3. सच कहां, प्रेम हैं पर मिलन कहीं नहीं हैं
    नव वर्ष की मंगलकामनाएं
    http://savanxxx.blogspot.in

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