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Monday, 16 November 2015

चालीस पार की औरतें

चालीस पार की औरतें
जैसे हो
दीमक लगी दीवारें !
चमकदार सा
बाहरी आवरण,
खोखली होती
भीतर से
परत -दर -परत।

जैसे हो
कोई विशाल वृक्ष,
नीड़ बनाते हैं पंछी जिस पर
बनती है
आसरा और सहारा
असंख्य लताओं का
लेकिन
गिर जाये कब चरमरा कर
लगा हो  घुन  जड़ों में।


 जीवन में
 क्या पाया
या
खोया अधिक !
सोचती,
विश्लेषण करती।

बाबुल के घर से
अधिक हो गई
पिया के घर की,
तलाशती है जड़ें
फिर भी,
चालीस पार की औरतें ! 

12 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 17 नवम्बबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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    1. हार्दिक धन्यवाद आपका .

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  2. हार्दिक धन्यवाद आपका .

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  3. हार्दिक धन्यवाद आपका .

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  4. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

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  5. अद्भुत और सटीक ....निशब्द

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  6. शानदार और मार्मिक रचना की प्रस्‍तुति।

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  7. सच है ..हम भी चालीस पार हो गए ...

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  8. सच है आप की रचना । बहुत अच्छी ।

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  9. बहुत सुंदर रचना .वाह

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  10. उपासना जी बेहद सुंदर भावपूर्ण रचना .
    कभी मेरे ब्लॉग पर भी अवलोकनार्थ पधारें .
    https://shortncrispstories.blogspot.in/2015/04/1.html

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