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Thursday, 7 May 2015

अब चाँद को छूने की हसरत नहीं...

बचपन के
आँगन में
पानी भरी थाली में
चाँद देखना
जैसे आँगन में ही
चाँद उतर आया हो

नन्ही हथेलियों से
चाँद को छूने की चेष्टा में
पानी के हिल जाने से
चाँद का भी हिल जाना
और नन्हे  से  मन का खिल जाना..

खिले मन से
पानी को हथेली से
छपछपाना...

पानी बिखरा या
चाँद थाली से बाहर हुआ
क्या मालूम...!

शायद चाँद ही
क्योंकि
चाँदनी नन्हे गालों पर
खिल उठती...

समय बदला
आँगन भी वहीं है
पानी की थाली में
चाँद भी वही है..

अब चाँद को
छूने की हसरत नहीं
कि बिखर जाने का भय है
अब तो
अंजुरी में भर कर
रखने की तमन्ना है....

8 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-05-2015) को "चहकी कोयल बाग में" {चर्चा अंक - 1970} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
    ---------------

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  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है l

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  3. दिल को छू हर एक पंक्ति...

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  4. दोनों बार चाँद यूँ ही निकल जाएगा हाथ से ... पर चाहत ख़त्म नहीं होगी ...

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