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Monday, 24 November 2014

खुशियों की चादर कितनी छोटी है....

उदासियों की चादर
बहुत बड़ी है
बहुत मोटी ,
खद्दर जैसी है।
या
खुरदरी सी
जैसे जूट हो।

कहीं  कोई छेद नहीं ,
झिर्री भी तो नहीं है।

कि कहीं से
उधेड़ देने की कोशिश तो की जाय।

कहीं कोई गरमाइश भी नहीं
कि
ओढ़ कर सुकून सा मिले।

उदासियों की चादर के आगे
खुशियों की चादर
कितनी छोटी है।

उधड़ी हुई सी ,
जगह-जगह झिर्रियां सी है।
छोटे -बड़े कई छेद हैं
उन पर भी पैबंद लगा है।

फिर भी
इस झिर्रीदार ,
पैबन्दों  से बिंधी
छोटी ही सही ,
खुशियों की चादर
कितना गरमाइश भरा सुकून है। 








Tuesday, 11 November 2014

मिट्टी की मूरतों में प्राण ही नहीं...

पत्थरों के शहर में
मिट्टी की मूरतें है।
अग्नि सी आंधियां
तेज़ाबी बरसातें है।

ना जाने क्यों
न पत्थर पिघलते हैं
और
न ही मिट्टी की मूरतें
भुरभुराती है।

पत्थरों को पिघलने की
चाहत ही ना रही ...
बसंत का इंतज़ार ही नहीं उसे,
तभी तो शायद
मिट्टी की मूरतों में प्राण ही नहीं
या जीने की ही चाह ना रही ।

Monday, 10 November 2014

अस्थियों के विसर्जन के मायने ही कहाँ रहे....

अस्थियों के
विसर्जन के साथ ही
कर दिया तर्पण
सम्बन्धों का भी....
बह गए सभी
रिश्ते ,
खत्म हुए सभी नाते....
तन के रिश्ते तन
तक ही थे शायद.
फिर
मन के विलाप का क्या
कुछ दिनों का रोना है....
मन से जुड़े रिश्तों का ,
तन से जुड़ी यादों का नाता
अस्थि यों के होने तक ही था क्या....
अस्थियां जब तक
अस्थि मज्जा से जुड़ी थी,
मजबूत ढाँचे में कसी थी
क्या तभी तक रिश्ते रहे ....
नहीं !
मन के रिश्ते ,
मन से ही जुड़े रहेे ।
फिर
अस्थियों के विसर्जन के
मायने ही कहाँ रहे....

Thursday, 6 November 2014

औरत सदा अकेली ही रहती है ..

औरत सदा
अकेली ही रहती है
कौन साथ देता है उसका !
कोई भी नहीं।

अपनी मंज़िल के लिए 
बढाती है वह खुद 
अपना पहला कदम ,
सहारा बनने के लिए 
कौन साथ देता है उसका !
कोई भी नहीं।

अपना पथ
स्वयं ही बुहारती -सवांरती ,
 पथ के कांटे भी 
खुद ही निकालती है। 

लेकिन 
जाने -अनजाने में 
अपने पीछे ही फैंक देती है वह ,
वे पथ के कांटे। 
उसे चुभन का 
अहसास ही नहीं हुआ  
कभी शायद। 

तभी तो 
उसके बाद 
आने वाली औरतों को 
विरासत में 
कांटे ही मिलते है बुहारने को। 

एक औरत ,
दूसरी औरत को
 फिर से अकेला छोड़ देती है ,


अपनी  राह खुद ही चलने को।