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Saturday, 28 September 2013

अकेली हूँ फिर भी अकेली कब होती हूँ ....

कभी -कभी
लगता है  मुझे
 नहीं है कोई भी मेरा
इस जहान में ...
है मेरे चहुँ ओर
बहुत सारे लोग ,
ऐसा लगता है मुझे
 फिर भी हूँ अकेली ...
अकेली हूँ फिर भी
अकेली कब होती हूँ
एक शोर सा ,
कोलाहल सा
मेरे मन के सन्नाटे को
रहता है चीरता सा ,
झन्झोड़ता सा ...
इस कोलाहल में भी
एक सन्नाटा सा छा जाता है
जब सुनती हूँ
एक खामोश सी पुकार ...
वह पुकार मुझे
फिर से  कर देती है
चुप और खामोश ....



19 comments:

  1. हर कोई भीड़ में भी अकेला है फिर भी अकेला नहीं पाता--यह जिंदगी का एक विरोधाभास है
    lataest post नई रौशनी !
    नई पोस्ट साधू या शैतान

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  2. गहन भाव लिये ... सच्‍ची अभिव्‍यक्ति

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  3. बहुत सुन्दर द्वंद ख़ुद से ख़ुद का
    सार्थक लेखनी , बधाई

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  4. सुन्दर प्रस्तुति आदरणीया-
    शुभकामनायें-

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  5. बहुत सुंदर ,गहरी अभिव्यक्ति.

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  6. वाह बहुत ही सुन्दर भाव
    --------------------------------
    एक शोर सा कोलाहल सा

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  7. उम्दा भावों से भरी रचना ।

    मेरी नई रचना :- जख्मों का हिसाब (दर्द भरी हास्य कविता)

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  8. मानसिक द्वंद्व को प्रस्तुत करती सुन्दर कविता
    आपकी इस उत्कृष्ट रचना की चर्चा कल रविवार, दिनांक 29 सितम्बर 2013, को ब्लॉग प्रसारण पर भी लिंक की गई है , कृपया पधारें , औरों को भी पढ़ें और सराहें,
    साभार सूचनार्थ

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  9. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  10. बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,धन्यबाद।

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  11. Is akelepan men yadon ka ek anokha shor hota hai.
    sunder prastuti.

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  12. Is akelepan men yadon ka ek anokha shor hota hai.
    sunder prastuti.

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  13. आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी यह रचना आज सोमवारीय चर्चा(http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/) में शामिल की गयी है, आभार।

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