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Sunday, 15 September 2013

मुझे मालूम है तुम वहां नहीं हो

 तुम नहीं जानते
क्यूँ  करती रही हूँ
मैं ऐसा
और करती ही रहती हूँ
हमेशा -हमेशा ,
जहाँ भी लगता है
तुम्हारा कुछ भी सुराग
पहुँच जाती हूँ
बिन सोचे -बिन रुके
मन और नयन
 तुम्हें ही तलाशते हैं
मुझे मालूम है
तुम
वहां नहीं हो
जहाँ
मैं तलाशती हूँ
मालूम है मुझे यह भी
टकराती हूँ मैं
और
मेरी आवाज़
सिर्फ पत्थरों से ही
लेकिन
फिर भी मैं वहां पहुँच जाती हूँ
जहाँ तुम नहीं होते
लेकिन
तुम्हारा कुछ सुराग पाती हूँ

( चित्र गूगल  से साभार )

11 comments:

  1. नमस्कार आपकी यह रचना कल सोमवार (16-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (16-09-2013) गुज़ारिश प्रथम पुरूष की :चर्चामंच 1370 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........

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  4. सुंदर भावाभिव्यक्ति

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  5. इसी सुराग के जरिये एक दिन उन्हें भी पा जाना है ... यही तो नियति है ... चाह है ...
    भावमय प्रस्तुति ...

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  6. एक अनोखा आकर्षण जो मन बाँध फिर फिर वहीँ लेजाता है जहाँ उनके होने की आशा हो ... सुन्दर भावों से पूर्ण रचना !

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  7. आदरेया उपासना जी बेहतरीन शब्दों में मानवीय आकर्षण की सुन्दर व्याख्या किये है काबिले तारीफ है,धन्यबाद।

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  8. काश सुराग मिल पाते उनके जो चले जाते हैं .सुन्दर रचना

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  9. आपकी इस रचना को सोमवारीय चर्चा(http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/) में शामिल किया है, जरुर पधारें।

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