Monday 30 September 2013

तुम्हारे साथ की नहीं छोड़ी चाह मैंने कभी ...

जिस दिन से तुमने
राह बदल दी
उस दिन से मैंने
मंजिल की
 चाह  छोड़ दी ...

चाह छोड़ी है बस
मंजिल की ही
तुम्हारे साथ की नहीं छोड़ी
चाह  मैंने कभी ...

बैठी हूँ
 एक  चाह लिए
तुम्हारे गुनगुनाने की
और
मेरे मुस्कुराने की ...

जिस दिन से तुमने
 गुनगुनाना
  छोड़ दिया
उस दिन से मैंने
 मुस्कुराना
 छोड़ दिया  ....

दीवारों को निहारती हूँ
एक चाह लिए
तुम्हारे अक्स के उभर
आने की ..

जिस दिन से
 तुमने मुहँ  फेर लिया
मैंने आईना
देखना छोड़ दिया  ...



Saturday 28 September 2013

अकेली हूँ फिर भी अकेली कब होती हूँ ....

कभी -कभी
लगता है  मुझे
 नहीं है कोई भी मेरा
इस जहान में ...
है मेरे चहुँ ओर
बहुत सारे लोग ,
ऐसा लगता है मुझे
 फिर भी हूँ अकेली ...
अकेली हूँ फिर भी
अकेली कब होती हूँ
एक शोर सा ,
कोलाहल सा
मेरे मन के सन्नाटे को
रहता है चीरता सा ,
झन्झोड़ता सा ...
इस कोलाहल में भी
एक सन्नाटा सा छा जाता है
जब सुनती हूँ
एक खामोश सी पुकार ...
वह पुकार मुझे
फिर से  कर देती है
चुप और खामोश ....



Saturday 21 September 2013

हे देवी -देवता सुनो मेरी आर्त पुकार....

करती हूँ आज
आव्हान !
तैतीस करोड़ देवी -देवताओं का ,
हे देवी -देवता
सुनो मेरी आर्त पुकार
 हूँ मैं बेबस लाचार

मैंने तुमसे कभी ना  मांगी
 कोई भेंट
 ना ही झोली फैलाई
माँगा कोई वरदान

मैंने देखा
कविता के पास है
सुंदर साड़ी बंधेज की
 गले में सुंदर कुंदन का हार
मुझे नहीं चाहिए
साड़ी और हार !

नीलिमा के पास
अच्छा सा लेपटोप देखा मैंने
थोड़ी इर्ष्या तो हुई
लेकिन
तुमसे ये क्यूँ मांगू  मैं !

देखो !
मीना के पास भी है
सुन्दर चमचमाती कार
मुझे कार भी नहीं चाहिए
तुम देवी -देवताओं के आगे सब है बेकार

हां अब रमा की क्या बात करूँ
वह तो खुद ही है एक
जापानी गुडिया
मुझे किसी से कुछ ना चाहिए

बस तुम सभी देवी -देवता
चले आओ  सुन कर मेरी पुकार
दे दो मुझे बस हर एक
एक -एक रूपये का वरदान  ….





Sunday 15 September 2013

मुझे मालूम है तुम वहां नहीं हो

 तुम नहीं जानते
क्यूँ  करती रही हूँ
मैं ऐसा
और करती ही रहती हूँ
हमेशा -हमेशा ,
जहाँ भी लगता है
तुम्हारा कुछ भी सुराग
पहुँच जाती हूँ
बिन सोचे -बिन रुके
मन और नयन
 तुम्हें ही तलाशते हैं
मुझे मालूम है
तुम
वहां नहीं हो
जहाँ
मैं तलाशती हूँ
मालूम है मुझे यह भी
टकराती हूँ मैं
और
मेरी आवाज़
सिर्फ पत्थरों से ही
लेकिन
फिर भी मैं वहां पहुँच जाती हूँ
जहाँ तुम नहीं होते
लेकिन
तुम्हारा कुछ सुराग पाती हूँ

( चित्र गूगल  से साभार )

Saturday 7 September 2013

इन्सान के जीवन के सिर्फ दो सोपान ही हैं....

' है 'और 'था'
 ये दो शब्द ,
 मात्र  ये दो शब्द ही नहीं है
इन्सान के जीवन में ,

बहुत फर्क है
इन दो शब्दों में ,
कोई अभी -अभी था
और
कोई अभी -अभी नहीं है  …

इन्सान के जीवन
के सिर्फ दो सोपान ही हैं
बस
एक उसका होना
और
एक उसका नहीं होना   .........

अपने होने के  सोपान पर
 खड़ा
वह जानता -सोचता है
अपने ना होने  सोपान को ,

मालूम है
एक दिन उसे , उसी सोपान
पर जाना है
 जब वह जाना जायेगा
एक दिन वह था  .....

अपने होने से
ना होने तक के सफ़र में
जाने कितने धुँधले राह
गुजरता है
मंजिल का पता है फिर भी
उलझा रहता है
 अपने होने और ना होने  में